उनदिनों कई बार हमने अक्सर
आसमान से चाँद-तारे तोड़े .
बात-बात मे पर्वत झुकाए और नदियाँ बहाई .
इन्द्रधनुष चुराकर माथे की बिंदिया सजाई .
वक़्त को मुट्ठी मे भिंचा
और
दुनिया को बाँहों मे समेटा .
पर तुमने notice भी नही किया.... .
फ़िर,
तुम्हारी साँसों की संगीत मे डूबा .
आंखों से मोती बीने, .
चेहरे पे मुस्कराहट खिलाई .
बिना वज़ह कई रात जगे .
बिसीओं कविताएँ लिख डाली .
जुल्फों मे ऊंगलियों से आशियाँ बनाये .
और
मुहब्बत को महसूस किया .
पर,
आज-कल ऐसा लगता है .
इतनी भी निर्दई नही हो तुम .
जब चाकू से प्याज के सीने को चीरती हो .
आँखें भर जाती हैं तुम्हारी .
इन्द्रधनुषी बातें तो ठीक, .
पर जब बारिश मे बाहर से सूखते कपड़े लाने बोलती हो .
अत्यंत ही मुश्किल लगता है .
romantic होने मे effort लगता है .
क्या ये प्रकृति के साथ बद्तमीज़ी की सज़ा है .
या इसको maturity कहते हैं?