Friday, October 22, 2010

समाधान

दुनियाँ- जहान, 
      क्यूँ परीशां 
             मैं हिन्दू , तू मुसलमान
               इंसानियत बेआबरू,
                        एक सामान
                             मुद्दा : पहचान - पहचान 


                 आतंकवाद एक समस्या,
                             हक़ीकत- रोजमर्रा  
                                     इन्सानी ज़हन - बुनियाद 
                                            मानवीयता, सौहार्द , प्रेम

Saturday, February 13, 2010

वक़्त

आराम सी जिंदगी है बस में कम ही चलता हूँ मैं . 
याद है मुझे बिहार में एक बार - बस का वो अनोखा सफ़र . 
जाड़े के मौसम में एक ही सीट पर .  
मेरे हाथों को अक्सर ढक लेते थे तुम्हारे shawl .............................. 

वक़्त बदल गया है . 
इसका मिजाज़ अब कुछ और ही है . 
पर उस घर-घराते, बाबा के पुराने radio पर anytime गाना लगाना . 
newspaper लौटाने के बहाने कुछ पलों का वो साथ 
और 
उन्हीं सेकंड्स में झट से' पूरी जिंदगी जी लेने का ज़ोर . 

वो अपनी-अपनी छतों से एक ही तारे को एक साथ देखते रहना . 
वो हमेशा मिलने की चाहत 
और 
एक-दूसरे में पूर्णतया समां जाने की अगन - 
और 
ना मिल पाने की घुटन . 
वो लोगों की भीड़ में अनोखे अंदाज़ से मुझको देखना 
और 
वो छुपी-छुपी सी छुअन . 
आह! क्या दिन थे....

Saturday, January 16, 2010

जिंदगी

कहो तो ये कह दें कि तुम अभी भी बला की सुन्दर हो.
रेगिस्तान मे मचलती हुई समंदर हो.
उफान मे तो यूँ भी कोई कमी नही है.
और
एक बार जो तुम नज़र भर के देख लो.
तो अभी भी दिल मे लाबा फूटते हैं.

जिस तरह तुम "ए जी" बुलाती हो.
जी करता है धड़कन वहीं रुक जाए....
यूँ तो मानती नही पर फिर भी.
यूँही जब ग़लती से कह देती हो " I still love you" .
तो ज़ी करता है कि बस यही जिंदगी हो ....
परन्तु,
अचानक जब सपनों के यमराज़.
husband का जिक्र आता है.
ऐसा लगता है कि.
उत्तंग आसमान के रंगीन मखमली चादरों से उतार कर.
"सड़क पे 'कृपया बायीं ओर' चलने को कहा जा रहा हो...."

Friday, January 15, 2010

पाने में वो मज़ा कहाँ जो उसकी चाहत में है और खोना तो बेवकूफी-
     पाना मौत,
                    पाने की चाहत जिंदगी और खोना,
                                                                        एक और जनम
चलों पत्थर से पत्थर मारके चिंगारी निकालें.  
या कंचे को घुप्पी में डालें.  
या लुक्का-छुप्पी का खेल रचाए.  
या नदी के पानी पे झिट्की उछालाये.  
या फिर कुछ सवाल सुलझाये
         एक सूरज में कितने चाँद समां सकते हैं? 
         रात को आये तारे सुबह कहाँ चले जाते हैं?  
         आसमान की चादर कौन बदलता है? 
         क्षितिज दूर से ही मिले हुए दिखते हैं
                                       सच्चाई में क्यूँ नहीं मिलते?