Saturday, February 13, 2010

वक़्त

आराम सी जिंदगी है बस में कम ही चलता हूँ मैं . 
याद है मुझे बिहार में एक बार - बस का वो अनोखा सफ़र . 
जाड़े के मौसम में एक ही सीट पर .  
मेरे हाथों को अक्सर ढक लेते थे तुम्हारे shawl .............................. 

वक़्त बदल गया है . 
इसका मिजाज़ अब कुछ और ही है . 
पर उस घर-घराते, बाबा के पुराने radio पर anytime गाना लगाना . 
newspaper लौटाने के बहाने कुछ पलों का वो साथ 
और 
उन्हीं सेकंड्स में झट से' पूरी जिंदगी जी लेने का ज़ोर . 

वो अपनी-अपनी छतों से एक ही तारे को एक साथ देखते रहना . 
वो हमेशा मिलने की चाहत 
और 
एक-दूसरे में पूर्णतया समां जाने की अगन - 
और 
ना मिल पाने की घुटन . 
वो लोगों की भीड़ में अनोखे अंदाज़ से मुझको देखना 
और 
वो छुपी-छुपी सी छुअन . 
आह! क्या दिन थे....